चित्रसेन महान मूर्तिकार था। उसने अनेक मूर्तियां बनाकर अपने यहां संग्रहीत कर रखी थीं। उसकी मूर्तिकला की ख्याति जैसे जैसे बढ़ती गयी, वैसे वैसे ही उसका अहंकार भी बढ़ने लगा. यहाँ तक कि कई बार उसने मूर्ति बनाने का अनुरोध करने वाले कई नामी-गिरामी सामन्तों और धनिकों का अपमान भी कर डाला. उन सामन्तों और धनिकों की शिकायत पर राजा बहुत क्रोधित हुआ और उसने उस मूर्तिकार को बंदी बना कर जेल में डालने का हुक्म जारी कर दिया.
राजाज्ञा से लैस कुछ सैनिक उसे बंदी बनाने चले। उसे इसकी पूर्व सूचना मिल गई। सैनिक उसके यहां पहुंचते तक तक वह स्वयं उन मूर्तियों के मध्य मूर्तिवत बनकर बैठ गया।
उसके घर पहुंचकर सैनिकों ने बहुत खोजा, लेकिन चित्रसेन कहीं भी नजर नहीं आया। उन सैनिकों में एक कला का पारखी भी था। चित्रसेन की कलाकारी की प्रशंसा करते हुए वह बोला, ‘वाह! कितनी सुन्दर मूर्तियां हैं। चित्रसेन वास्तव में ही महान कलाकार है।’
अपनी प्रशंसा सुनकर चित्रसेन के चेहरे पर मुस्कान तैर गई।
तभी उस सैनिक ने उसकी कला की निंदा करते हुए कहा, ‘माना कि वह महान कलाकार है लेकिन कुछ कमी उसने छोड़ ही दी।’
यह सुनते ही मूर्तिवत बना चित्रसेन तपाक से बोला, ‘कौन सी कमी रह गई?’ इतना कहकर वह तमतमाता हुआ उठ खड़ा हुआ।
तभी उस सैनिक ने उसकी कलाई पकड़कर बंदी बना लिया और बोला, ‘बस, यही तो कमी रह गई कि तुम्हारा अहं भाव अभी भी खत्म नहीं हुआ।’
इस तरह चित्रसेन अपने अहंभाव के कारण बंदी बनकर पछताने लगा।