Dushyant Kumar Shayari
हिन्दी ग़ज़ल का नाम आता है तो अनायास ही मुंह पर सबसे पहले दुष्यंत कुमार का नाम आ जाता है या फिर मुंह से निकाल पड़ता है दुष्यंत कुमार का कोई शेर। वैसे तो सिर्फ 42 साल की उम्र मिली दूषयांत को इस दुनिया में लेकिन इसी 42 साल की छोटी सी उम्र में दुष्यंत की कलाम से निकली क्रांतिकारी और व्यवस्था-विरोधी कविताओ, ग़ज़लों और शेरो ने उन्हें आम आदमी का शायर बना दिया। आज हम आपके लिए दुष्यंत कुमार के मशहूर शेर (Dushyant Kumar sher) चुन कर लाएँ हैं ताकि आप भी इस महान शायर की प्रतिभा से रु-ब-रु हो सकें !
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके—जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब
सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सज्दे में नहीं था आप को धोका हुआ होगा
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आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं
यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं
यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये
लहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है।
हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब
आप दीवार गिराने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है
अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था
वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं
एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
ज़िंदगी जब अज़ाब होती है
आशिक़ी कामयाब होती है
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मैं अपने आप से परेसान हुं ।
सामने वाले समझते हैं ज़माने का दोष है