दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों
आँखों की सुर्ख़ लहर है मौज-ए-सुपरदगी
ये क्या ज़रूर है के अब अंगड़ाइयाँ भी हों
हर हुस्न-ए-सादा लौ न दिल में उतर सका
कुछ तो मिज़ाज-ए-यार में गहराइयाँ भी हों
दुनिया के तज़किरे तो तबियत ही ले बुझे
बात उस की हो तो फिर सुख़न आराइयाँ भी हों
पहले पहल का इश्क़ अभी याद है “फ़राज़”
दिल ख़ुद ये चाहता है के रुस्वाइयाँ भी हों
वो जो आ जाते थे आँखों में सितारे लेकर – अहमद फ़राज़
वो जो आ जाते थे आँखों में सितारे लेकर
जाने किस देस गए ख़्वाब हमारे लेकर
छाओं में बैठने वाले ही तो सबसे पहले
पेड़ गिरता है तो आ जाते हैं आरे लेकर
वो जो आसूदा-ए-साहिल हैं इन्हें क्या मालूम
अब के मौज आई तो पलटेगी किनारे लेकर
ऐसा लगता है के हर मौसम-ए-हिज्राँ में बहार
होंठ रख देती है शाख़ों पे तुम्हारे लेकर
शहर वालों को कहाँ याद है वो ख़्वाब फ़रोश
फिरता रहता था जो गलियों में गुब्बारे लेकर
नक़्द-ए-जान सर्फ़ हुआ क़ुल्फ़त-ए-हस्ती में ‘अहमद फ़राज़’
अब जो ज़िन्दा हैं तो कुछ सांस उधारे लेकर