Charnamrut ke labh aur mahatva
आइये जाने इसका वैज्ञानिक पहलु … हिन्दू धर्म में भगवान की आरती के पश्चात भगवान का चरणामृत दिया जाता है। ‘चरणामृत’ इस शब्द का अर्थ है भगवान के चरणों से प्राप्त अमृत। हिन्दू धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है।
चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस में लिखा है –
पद पखारि जलुपान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारू प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेड़ पार।।
अर्थात् भगवान श्रीराम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवल न केवल स्वयं भवबाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है। आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रख जल में आ जाती है।
उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते। इसमें तुलसी के पत्ते डालने से परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है।
पापव्याधिविनाषार्थ विष्णुपादोदकौशधम्।
तुलसीदलसम्मिश्रं जलं सर्शपमात्रकम्।।
अर्थात पाप और रोग दूर करने के लिए भगवान का चरणामृत औषधि के समान है। यदि उसमें तुलसीपत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधिय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है। चरणामृत सेवन करते समय निम्न श्लोक पढ़ने का विधान है
अकामृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णुपादोदंक पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।
अर्थात चरणामृत अकाल मृत्यु को दूर रखता है। सभी प्रकार की बीमारियों का नाश करता है। इसके सेवन से पुनर्जन्म नहीं होता।