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विष या जहरीले भोजन से होने वाली हानि पर चाणक्य की राय

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्। वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥
पीठ पीछे काम बिगाड़नेवाले था सामने प्रिय बोलने वाले ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे हुए विष के घड़े के समान त्याग देना चाहिए ।

अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्। दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्॥
जिस प्रकार बढ़िया-से बढ़िया भोजन बदहजमी में लाभ करने के स्थान में हानि पहुँचता है और विष का काम करता है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास न रखने से शास्त्रज्ञान भी मनुष्य के लिए घातक विष के समान हो जाता है ।

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अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे तद् बलप्रदम्। भोजने चामृतं वारि भोजनान्तें विषप्रदम्॥
भोजन न पचने पर जल औषधि के समान होता है । भोजन करते समय जल अमृत है तथा भोजन के बाद विष का काम करता है ।

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