कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् हिंसेन प्रतिहिंसनम् । तत्र दोषो न पतति दुष्टे दौष्ट्यं समाचरेत्॥
उपकारी के साथ उपकार, हिंसक के साथ प्रतिहिंसा करनी चाहिए तथा दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए। इसमें कोई दोष नहीं है ।
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च। दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥
मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर , दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों- रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दुःखी हो ही जाता है ।
दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः। ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥
दुष्ट पत्नी, शठ मित्र , उत्तर देने वाला सेवक तथा सांप वाले घर में निवास करना , ये मृत्यु के कारण हैं इसमें सन्देह नहीं करनी चाहिए ।
दुराचारी च दुर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः। यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्र विनश्यति ॥
दुराचारी, दुष्ट स्वभाववाला, बिना किसी कारण दूसरों को हानि पहुँचानेवाला तथा दुष्ट व्यक्ति से मित्रता रखने वाला श्रेष्ठ पुरुष भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते है क्यूोंकि संगति का प्रभाव बिना पड़े नहीं रहता है ।
दुर्जनेषु च सर्पेषु वरं सर्पो न दुर्जनः। सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे-पदे ॥
दुष्ट और साँप, इन दोनों में साँप अच्छा है, न कि दुष्ट । साँप तो एक ही बार डसता है, किन्तु दुष्ट तो पग-पग पर डसता रहता है।
उपसर्गेऽन्यच्रके च दुर्भिक्षे च भयावहे। असाधुजनसम्पर्के पलायति स जीवति॥
उपद्रव या लड़ाई हो जाने पर, भयंकर अकाल पड़ जाने पर और दुष्टों का साथ मिलने पर भाग जाने वाला व्यक्ति ही जीता है ।
कुग्रामवासः कुलहीन सेवा कुभोजन क्रोधमुखी च भार्या। पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम्॥
दुष्टों के गाँव में रहना, कुलहीन की सेवा, कुभोजन, कर्कशा पत्नी, मुर्ख पुत्र तथा विधवा पुत्री ये सब व्यक्ति को बिना आग के जला डालते हैं ।
कुराजराज्येन कृतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिवृत्तिः। कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कृशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः॥
दुष्ट राजा के राज्य में प्रजा सुखी कैसे रह सकती है ! दुष्ट मित्र से आनंद कैसे मिल सकता है ! दुष्ट पत्नी से घर में सुख कैसे हो सकता है ! तथा दुष्ट शिष्य को पढ़ाने से यश कैसे मिल सकता है !
शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम्। हस्तिनं शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम्॥
बैलगाड़ी से पांच हाथ घोड़े से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ दूर रहना चाहिए किन्तु दुष्ट व्यक्ति से बचने के लिए थोड़ा – बहुत अन्तर पर्याप्त नहीं, उससे बचने के लिए तो आवश्यकता पड़ने पर देश को भी त्याग देना चाहिए।
हस्ती त्वंकुशमात्रेण बाजो हस्तेन तापते। शृङ्गीलकुटहस्तेन खड्गहस्तेन दुर्जनः॥
हाथी को अंकुश से, घोड़े को हाथ से, सींगोंवाले पशुओं को हाथ या लकड़ी से तथा दुष्ट को खड्ग हाथ में लेकर पीटा जाता है ।
अन्तर्गतमलो दुष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि। न शुद्धयतियथाभाण्डं सुरया दाहितं च तत्॥
जैसे सुरापात्र अग्नि में जलाने पर भी शुद्ध नहीं होता । इसी प्रकार जिसके मन में मैल हो, वह दुष्ट चाहे सैकड़ों तीर्थ – स्नान का ले, कभी शुद्ध नहीं होता ।
दह्यमानां सुतीव्रेण नीचाः परयशोऽग्निना। अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते॥
दुष्ट व्यक्ति दूसरे की उन्नति को देखकर जलता है वह स्वयं उन्नति नहीं कर सकता । इसलिए वह निन्दा करने लगता है
त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् । कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः॥
दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रत-दिन अच्छे काम करो तथा सदा ईश्वर को याद करो । यही मानव का धर्म है ।
जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारे वस्तुशक्तितः॥
जल में तेल, दुष्ट से कही गई बात, योग्य व्यक्ति को दिया गया दान तथा बुद्धिमान को दिया ज्ञान थोड़ा सा होने पर भी अपने- आप विस्तार प्राप्त कर लेते हैं ।