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ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे – अहमद फ़राज़ शायरी

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे

ऐसे चुप हैं के ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे

अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे

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मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं
अपने ही पावों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे

तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर
यह गिरह अब के मेरे दिल पे पड़ी हो जैसे

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कितने नादान हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे

आज दिल खोल के रोये हैं तो यूँ ख़ुश हैं “फ़राज़”
चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे

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(गाम=हर क़दम, शिकन=झुर्री, गिरह=गाँठ,
राहत=चैन)

ज़ेरे-लब

किस बोझ से जिस्म टूटता है
इतना तो कड़ा सफ़र नहीं था
दो चार क़दम का फ़ासला क्या
फिर राह से बेख़बर नहीं था
लेकिन यह थकन यह लड़खड़ाहट
ये हाल तो उम्र-भर नहीं था

आग़ाज़े-सफ़र में जब चले थे
कब हमने कोई दिया जलाया
कब अहदे-वफ़ा की बात की थी
कब हमने कोई फ़रेब खाया
वो शाम,वो चाँदनी, वो ख़ुश्बू
मंज़िल का किसे ख़याल आया

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तू मह्वे-सुख़न थी मुझसे लेकिन
मैं सोच के जाल बुन रहा था
मेरे लिए ज़िन्दगी तड़प थी
तेरे लिए ग़म भी क़हक़हा था
अब तुझसे बिछुड़ के सोचता हूँ
कुछ तूने कहा था क्या कहा था

(आग़ाज़=प्रारम्भ, अहदे-वफ़ा=
वफ़ादारी के वचन, मह्वे=मगन)

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