अच्छा था अगर ज़ख़्म न भरते कोई दिन और
अच्छा था अगर ज़ख़्म न भरते कोई दिन और
इस कू-ए- मलामत में गुज़रते कोई दिन और
रातों को तेरी याद के ख़ुर्शीद उभरते
आँखों में सितारे-से उतरते कोई दिन और
हमने तुझे देखा तो किसी को भी न देखा
ऐ काश! तिरे बाद गुज़रते कोई दिन और
राहत थी बहुत रंज में हम ग़म-तलबों को
तुम और बिगड़ते तो सँवरते कोई दिन और
गो तर्के-तआल्लुक़ था मगर जाँ प’ बनी थी
मरते जो तुझे याद न करते कोई दिन और
उस शहरे-तमन्ना से ‘फ़राज़’ आए ही क्यों थे
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और
(कू-ए- मलामत=निंदा के नगर, ख़ुर्शीद=सूर्य,
राहत=आराम, ग़म-तलबों=दु:ख चाहने वालों,
गो=यद्यपि, तर्के-तआल्लुक़=संबंध विच्छेद,
शहरे-तमन्ना=इच्छाओं का नगर)
जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना
ये शोलगी हो बदन की तो क्या किया जाये
सो लाजमी है तेरे पैरहन का जल जाना
तुम्हीं करो कोई दरमाँ, ये वक्त आ पहुँचा
कि अब तो चारागरों का भी हाथ मल जाना
अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी
हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना
सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं
मुअर्रिखों ने मकाबिर को भी महल जाना
ये क्या कि तू भी इसी साअते-जवाल में है
कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना
हर इक इश्क के बाद और उसके इश्क के बाद
फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना
(शोलगी=अग्नि ज्वाला, मुअर्रिख= इतिहास कार,
मकाबिर=कब्र का बहुवचन, साअते-जवाल= ढलान
का क्षण)