सौ दूरियों पे भी मिरे दिल से जुदा न थी
सौ दूरियों प’ भी मेरे दिल से जुदा न थी
तू मेरी ज़िंदगी थी मगर बेवफ़ा न थी
दिल ने ज़रा से ग़म को क़यामत बना दिया
वर्ना वो आँख इतनी ज़्यादा ख़फ़ा न थी
यूँ दिल लरज़ उठा है किसी को पुकार कर
मेरी सदा भी जैसे कि मेरी सदा न थी
बर्गे-ख़िज़ाँ जो शाख़ से टूटा वो ख़ाक़ था
इस जाँ सुपुर्दगी के तो क़ाबिल हवा न थी
जुगनू की रौशनी से भी क्या भड़क उठी
इस शहर की फ़ज़ा कि चराग़ आश्ना न थी
मरहूने आसमाँ जो रहे उनको देख कर
ख़ुश हूँ कि मेरे होंठों प’ कोई दुआ न थी
हर जिस्म दाग़-दाग़ था लेकिन ‘फ़राज़’ हम
बदनाम यूँ हुए कि बदन पर क़बा न थी
जो भी दुख याद न था याद आया
जो भी दुख याद न था याद आया
आज क्या जानिए क्या याद आया
फिर कोई हाथ है दिल पर जैसे
फिर तेरा अहदे-वफ़ा याद आया
जिस तरह धुंध में लिपटे हुए फूल
एक-इक नक़्श तिरा याद आया
ऐसी मजबूरी के आलम में कोई
याद आया भी तो क्या याद आया
ऐ रफ़ीक़ो ! सरे-मंज़िल जाकर
क्या कोई आबला-पा याद आया
याद आया था बिछड़ना तेरा
फिर नहीं याद कि क्या याद आया
जब कोई ज़ख़्म भरा दाग़ बना
जब कोई भूल गया याद आया
ये मुहब्बत भी है क्या रोग ‘फ़राज़’
जिसको भूले वो सदा याद आया
(आलम=हालत,अवस्था, रफ़ीक़=मित्र,
आबला-पा=जिसके पाँवों में छाले पड़े
हुए हों)