“सिमटी हुई चादर”
एक लघु कथा :-
पूरा दिन थका सा निकल गया था और थका सा हो भी क्यों न आखिरकार वही सारा काम रोज-2 कर के मैं थक गया था | जिन्दगी में शायद अब कुछ नया करने के इच्छा ही नहीं बची थी, शायद मेरे सपने ही कम थे |
रात को श्रीमती जी ने खाने में खिचड़ी बनाई थी, शायद उसका मन नहीं था खाना बनाने का |
मैंने भी वो खिचड़ी बड़े चाव से चटनी के साथ खाई और खाते वक्त भी मैं यही सोच रहा था की ये भी तो एक इंसान ही है…जैसे में पूरा दिन एक ही काम कर के थक जाता हूँ ठीक वैसे ही ये भी तो थक जाती होगी |
इसी विचार में डूबे हुए पूरी खिचड़ी कब ख़तम हो गयी पता ही नहीं चला, खाली थाली देखकर श्रीमती जी को लगा के शायद आज ज्यादा ही भूखे हैं और मैंने इन्हें खाना न देकर ये खिचड़ी खिला दी |
ये सोचते हुए उसने कब थाली में और खिचड़ी डाल दी पता ही नहीं चला |
उदास मन को दबाते हुए आखिर उसने पूछ ही लिया कैसी बनी है ? शायद अच्छी है इसीलिए बहुत जल्दी खा गए ?
शायद पहली बार जिन्दगी ऐसा लगा था की मैं जो भी करता हूँ उसमे मेरा खुद का स्वार्थ होता है पर ये जो करती है वो सब के लिए करती है और हमें भी उसके दुःख-दर्द का ख्याल रखना चाहिए |
मैंने खुश होते हुए हाँ में सर हिला दिया की बहुत अच्छी बनी है |
खाना ख़तम कर के और ईश्वर का धन्यबाद करते हुए मैंने हाथ धोये और कुछ देर बाहर टहलने निकल गया रोज की तरह |
श्रीमती जी अपना काम करने में लग गई | बर्तन साफ़ करना चौका साफ़ करना और विस्तर वगेरा लगाना |
जब मैं आधे घंटे बाद वापस आया तो रोज की ही तरह सब तैयार मिला |
साफ़ सुथरा विस्तर, चारपाई के नीचे पानी का गिलास
श्रीमती जी मेरे सोने के बाद सोती थी और मेरे जागने से पहले जाग जाती थी |
में विस्तर पर लेट गया और सोचने लगा अपने पूरे दिन के बारे में की कल क्या करना है कैसे करना |
मैं आज सोचकर लेटा था के श्रीमती जी के साथ ही सोऊंगा और साथ ही उठूँगा सो आँख मूँद कर सोचने लगा और अपने पुराने दिन याद करने लगा जब हम स्कूल में हुआ करते थे, दोस्तों के साथ हंसी ठिठोली, पढाई और वो सब चीज़ें जिनसे में खुश हो सकता था |
रोज की ही तरह आज भी मैं वही तकिया अपने से चिपकाये हुए पड़ा था जिसका लिहाफ एक तरफ से खुला हुआ था और सुबह तक आधे से ज्यादा उतर जाता था मेरी लिटाई की बजह से | नीचे बिछी हुई चादर तक सिमट जाती थी क्योंकि गर्मियों के इन दिनों में सर के पास ही कूलर लगाया हुआ था |
इतने में एक एक आहट हुई…पलट के देखा तो श्रीमती जी तो कब की आकर सो चुकी थी | थकी हारी शायद इस जल्दीबाजी में की सुबह उठकर फिर वही काम करने है नास्ता घर की सफाई आदि आदि…
मैं मुस्कुराता हुआ उसके चेहरे को निहार रहा था और सोच रहा था की ये भले से ही पत्नी है पर माँ से कम भी नहीं है | पूरा घर संभालना सबका खाना बनाना सारे काम करना वो भी बिना किसी सैलरी की चाहत में…कमाल है…पर चाहत तो है इनकी…चाहत है इनकी बस थोड़े से प्यार की थोड़ी सी इज्ज़त की और थोडी सी देखभाल की…
मैं वापस अपने विस्तर पर आ गया और सोने की कोशिश करने लगा की सुबह इसके साथ ही उठ जाऊंगा पर मुझे अन्दर से पता था की सुबह आँख खुलते ही मुझे 3 चीजे वैसी ही मिलेंगी…झाड़ू लगाती श्रीमती जी…तकिये का आधे से ज्यादा उतर चुका लिहाफ और सिमटी हुई चादर…
आशीष सक्सेना