फिर भी तू इंतज़ार कर शायद
फिर उसी राहगुज़र पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद
जिनके हम मुंतज़िर रहे उनको
मिल गए और हमसफ़र शायद
जान पहचान से भी क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर ! शायद
अजनबीयत की धुंध छँट जाए
चमक उठ्ठे तिरी नज़र शायद
ज़िन्दगी भर लहू रुलाएगी
यादे-याराने-बेख़बर शायद
जो भी बिछड़े वो कब मिले हैं ‘फ़राज़’
फिर भी तू इंतज़ार कर शायद
(मुंतज़िर=प्रतीक्षारत)
बेसरो-सामाँ थे लेकिन इतना अन्दाज़ा न था
बेसरो-सामाँ थे लेकिन इतना अन्दाज़ा न था
इससे पहले शहर के लुटने का आवाज़ा न था
ज़र्फ़े-दिल देखा तो आँखें कर्ब से पथरा गयीं
ख़ून रोने की तमन्ना का ये ख़मियाज़ा न था
आ मेरे पहलू में आ ऐ रौनके-बज़्मे-ख़याल
लज्ज़ते-रुख़्सारो-लब का अब तक अन्दाजा न था
हमने देखा है ख़िजाँ में भी तेरी आमद के बाद
कौन सा गुल था कि गुलशन में तरो-ताज़ा न था
हम क़सीदा ख़्वाँ नहीं उस हुस्न के लेकिन ‘फ़राज़’
इतना कहते हैं रहीने-सुर्मा-ओ-ग़ाज़ा न था
(बेसरो-सामाँ=ज़िन्दगी के ज़रूरी सामान के बिना,
ज़र्फ़े-दिल=दिल की सहनशीलता, कर्ब=दुख,बेचैनी,
ख़मियाज़ा=करनी का फल, बज़्म=सभा, ख़िजाँ=
पतझड़, क़सीदा ख़्वाँ=प्रशस्ति-गायक, रहीने-सुर्मा-
ओ-ग़ाज़ा=सुर्मे और लाली पर निर्भर)
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं
लाख समझाया कि उस महफ़िल में अब जाना नहीं
ख़ुदफ़रेबी ही सही, क्या कीजिए दिल का इलाज
तू नज़र फेरे तो हम समझें कि पहचाना नहीं
एक दुनिया मुंतज़िर है …और तेरी बज़्म में
इस तरह बैठें हैं हम जैसे कहीं जाना नहीं
जी में जो आती आता है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो
कल पशेमाँ हों कि क्यों दिल का कहा माना नहीं
ज़िन्दगी पर इससे बढ़कर तंज़ क्या होगा ‘फ़राज़’
उसका ये कहना कि तू शायर है, दीवाना नहीं
(महरूमियों=नाकामी, बज़्म=महफ़िल,
पशेमाँ=शर्मिंदा)