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नोटबंदी की जबरदस्त नाकामी के बावजूद क्यों नहीं है देश में मोदी के खिलाफ गुस्सा?

क्या आप को आश्चर्य नहीं होता कि प्रधानमंत्री की 1000 और 500 रुपये के नोटों का चलन बंद करके “काला धन” ख़त्म करने की महत्वाकांक्षी योजना के सुपर फ्लॉप होने के बावजूद देश में मोदी के खिलाफ कोई गुस्सा व आक्रोश का माहौल क्यों नहीं है?

modi note ban no anger publicदेश की 86 % मुद्रा के रातोंरात अवैध घोषित हो जाने से देश भर की आर्थिक गतिविधियां अस्तव्यस्त हो गयी थी. एक बार तो ऐसा लगा कि देश की सारी सवा सौ करोड़ की आबादी बैंकों के सामने लाइन में लग गयी थी. ये सिर्फ असुविधा का सवाल नहीं था. हर किसी को विमुद्रीकरण, जिसे हम नोटबंदी भी कहते हैं, से भारी असर पड़ा था. आखिर भारत में लगभग सौ फीसदी व्यापारिक लेनदेन नकद ही होता है. ऐसे में काम धंधे ठप हो गए, जीना मुहाल हो गया, बहुत से लोगों के पास तो राशन खरीदने के लिए भी नकदी नहीं थी. अगर किराने से उधार की सुविधा ना होती तो लोग भूखे मर गए होते.

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हजारों लेबर जो पंजाब , हरयाणा, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में श्रमिक हैं, उनकी नौकरी छूट गयी.

जगह जगह लोग बैंकों के सामने घंटों तक अपने 500 और 1000 के नोट बदलवाने के लिए लाइनों में खड़े नजर आये. उनमें से बहुत से तो दिन भर के इंतज़ार के बाद खाली हाथ लौट गए.

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बहुत सी माएं कलपती नजर आईं – हमारे बच्चे भूखे हैं, आटा खरीदने को पैसे नहीं हैं.

जाने कितनी शादियां रुक गयी क्यूंकि शादी के इंतजाम के लिए पैसे नहीं थे. जो शादियां हुईं, वे भी बड़े मुश्किल हालात में टेंट, कपडे वाले और ज्वैलर्स के उधार के दम पर हो पाईं.

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गृहणियों की बरसों की “बचत” पर भी नजर लग गयीं. रातोंरात उनके द्वारा सालों में बचाई गयी पाई-पाई अवैध घोषित हो गयी.

और इतना सब कुछ होने के बाद क्या आप सोच सकते हैं कि जब आरबीआई हमें बताता है कि लगभग सारी की सारी 1000 और 500 के नोटों की नकदी बैंकों में वापस आ गयी है कोई काला धन नहीं सामने आया तो सरकार की इस जबरदस्त नाकामी के प्रति आम आदमी का क्या रुख रहा होगा?

कुछ नहीं. कोई रिएक्शन नहीं. कोई आंदोलन नहीं. सिवाय फेसबुक और ट्विटर पर तमाम टिप्पणियों और चुटकियों के!

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देश में गुस्से, की, आक्रोश की कोई लहर क्यों नहीं है?

आइये हम आपको बताते हैं:

पहला – नोटबंदी को 9 महीने बीत चुके हैं और यह देश भूलने वाला देश है. सो भूल चुका है. इस देश की जनता की याददाश्त बहुत छोटी है.

दूसरा – अधिकाँश जनता के लिए वित्तीय और तकनीकी भाषा को कोई अर्थ नहीं है. आर बी आई क्या कहता है, सरकार की मौद्रिक नीति क्या है, ये उसके सर से ऊपर की बात है. इन सब बड़ी बड़ी बातों के लिए उसके पास न समय है न जरुरत.

तीसरा – देश की अधिकाँश जनता तक मोदी यह सन्देश पहुंचाने में सफल रहे हैं कि नोटबंदी के कदम से उन्होंने देश के अमीरों और गरीबों के एक जैसी कतार में खड़ा कर दिया. भारत जैसे देश में अमीरी और गरीबी के बीच जो खाई है उसमें भ्रम ही सही, अगर कोई ऐसा भ्रम भी उत्पन्न करने में सफल रहता है तो उसे देश की जनता खुदा से काम नहीं मानने वाली. ऊपर से कश्मीर में आतंकवाद और नक्सल वादियों की कमर तोड़ने जैसे नारों का तड़का देश की जनता को इस मुद्दे पर मोदी के साथ खड़ा करने में बेहद काम आया.

सबसे आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण – पुराने मुद्दों से बोरियत और राजनीतिक कलाबाजियों और नए नए देश विदेश के मसलों से परे एक और कारण है जिस वजह से भारत का नागरिक नोटबंदी की असफलता के बाद भी सरकार के खिलाफ सड़कों पर नजर नहीं आ रहा: वह है दो जून की रोटी का मसला ! आज रात को परिवार का पेट भरने की चिंता सरकार की तमाम नीतियों के फेल और पास होने की चिंता से बड़ी है शायद !

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