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मनोरंजक बच्चों की कहानी – दाढ़ी के बाल Manoranjak Bal Kahani – Dadhi ke bal

Manoranjak Bal Kahani – Dadhi ke bal

जिला ग्वालियर में एक गांव है शिवपुर। बहुत समय पहले की बात है, उस गांव में पुरातन पांडे रहते थे, जो बहुत मशहूर थे। उनकी मशहूरी तीन कारणों से थी। उनकी वीरता और तलवारबाजी की कला, दूसरा उनकी लटृमार कविताएं और तीसरा जबरदस्त कारण था उनकी हाजिरजवाबी और निडरता।

Manoranjak Bal Kahani - Dadhi ke balस्वभाव से बड़े घुमक्कड़ थे, एक जगह टिक कर नहीं रहते थे, छोटी मोटी रियासतों के राजाओं की सेना में भरती हो जाते, जब तक राजाओं से पटती तब तक रहते, इसके बाद नई नौकरी ढूंढ़ते।

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बात उस समय की है जब वे उदय नगर के राजा के यहां घुड़सवार फौज के नायक के ओहदे पर नियुक्त हुए। राजा बस कहने को ही राजा थे, वह अव्वल दर्जे के सनकी और कंजूस थे। अपनी फौज के सिपाहियों को कई कई महीने तनख्वाह नहीं देते थे और न ही किसी को पुरस्कार आदि देना उनको भाता था।

उस दिन दशहरे का दरबार लगा था। राजा साहब शान से सिंहासन पर बैठे हुए थे। सिपाहियों ने चमचमाती हुई वर्दियां पहन रखी थीं और उनके हथियार खूब दमक रहे थे। सैनिक अपने करतब दिखा रहे थे और जनता उनकी कुशलता देखकर तालियां पीट रही थी। राजा साहब भी सिंहासन पर बैठे बैठे अपनी मूंछों पर ताव देते, दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए ‘वाह वाह’ कर रहे थे।

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जब पांडे जी की बारी आई, तो उन्होंने भी घुड़सवारी के बेजोड़ करतब दिखाए। पूरा पांडाल तालियों से गूंज उठा। राजा साहब ने जैसे ही ‘वाह वाह’ कहा कि पांडे जी ने अपना साफा खोला और हवा में से कुछ पकड़कर साफे के पल्लू में रखने का अभिनय करने लगे।

किसी को कुछ समझ में नहीं आया कि पांडे जी को क्या हो गया है और वे हवा मेें से क्या पकड़ रहे हैं।

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अंत में राजा साहब ने पूछ ही लिया, ”पांडे जी, तुम हवा में क्या पकड़ कर इकट्ठा करना चाहते हो?“

इस पर पांडे जी ने भरी सभा में चिल्लाते हुए कहा, ”महाराज, आप जो ‘वाह वाह’ कर रहे हैं, मैं उसी को पकड़ रहा हूं। क्योंकि गांव जाकर बच्चों को वही खिलाऊंगा। न तो तीन महीने से वेतन मिला है और न ही आपने आज कुछ इनाम दिया है।“

पांडे जी की बात सुनकर पलभर के लिए तो सारी सभा ठहाकों से गूंज उठी। राजा साहब भरी सभा में अपना अपमान होता देखकर बहुत गुस्सा हुए और मन ही मन पांडे जी को क्या सजा दी जाए, सोचने लगे।

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सेना के प्रदर्शन के बाद कविता पाठ का कार्यक्रम शुरू हुआ। कवि लोग एक के बाद एक आते और राजा साहब के ठीक सामने रखी ऊंची चौकी पर खड़े होकर कविताएं पढ़ते और चले जाते।

जब पांडे जी का नंबर आया, तो वे अपनी फौजी वेषभूषा में सजे सजाए आए और चौकी पर खड़े हो गए।

पांडे जी को देखकर राजा साहब चौंक गए। पर फिर कुछ संभलकर बोले, ”घुड़सवार, तुम कविता भी करते हो, ये बहुत अच्छी बात है, अगर तुम्हारी कविता मुझे अच्छी लगी तो हम तुम्हें इनाम देंगे। हम अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरेंगे और जितने बाल हाथ में आएंगे, उतने रूपये तुम्हें इनाम में मिलेंगे।“

पांडे जी ने अपनी वीर रस की कविता सुनाई, जब कविता पूरी हो गई तब राजा साहब ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा और फिर खड़े होकर जोर से कहा कि दाढ़ी पर हाथ फेरने के बाद हमारे हाथ में सिर्फ एक बाल आया है। इसलिए पांडे जी एक कलदार रूपया नकद इनाम में दिया जाता है।

पांडे जी के इस अपमान से वहां मौजूद सभी लोगों को दुख हुआ।

पर पांडे जी चुप नहीं रहे। इनाम का रूपया लेने के बहाने राजा के कुछ और करीब खिसक गए आए और बोले, ”महाराज, तब आपका हाथ था और आपकी ही दाढ़ी थी, तब हाथ में एक ही बाल आया, अब मेरा हाथ है और आपकी दाढ़ी है। देखिए कितने बाल आते हैं।“ यह कहकर उन्होंने दोनों हाथों से उनकी दाढ़ी को पकड़कर जोर से खींचा। राजा साहब तकलीफ के मारे चिल्लाने लगे। दरबार में भगदड़ मच गई और इस भगदड़ में किसी को पता ही नहीं चला कि पांडे जी कब अपने घोड़े पर सवार होकर चंपत हो गए।

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राज्य की सीमा से काफी दूर आकर, शिवपुर के रास्ते में जब पांडे जी जलपान करने के लिए रूके, तब उन्होंने अपनी अंटी में पड़े हार को भी संभाला। यह हीरों का हार पहनकर राजा साहब दरबार में बैठे थे और दाढ़ी उखाड़ते समय पांडे जी का हाथ उनकी अंटी तक पहुंच गया था।

पांडे जी शिवपुर की तरफ बढ़ते हुए यह सोचकर बहुत प्रसन्न थे कि राजा साहब की आधी दाढ़ी के जितने बाल उनके हाथ में आए, उससे कहीं ज्यादा रूपये हार बेचकर उन्हें मिल जाएंगे। पिछले तीन महीनों से न मिले वेतन का घाटा भी पूरा हो जाएगा।

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