ज़ख्म को फ़ूल तो सर-सर को सबा कहते हैं – अहमद फ़राज़ शायरी
ज़ख़्म को फूल तो सर-सर को सबा कहते है
जाने क्या दौर है क्या लोग हैं क्या कहते हैं
अब कयामत है कि जिनके लिए रूक-रूक के चले
अब वही लोग हमें आबला-पा कहते हैं
कोई बतलाओ कि एक उम्र का बिछडा महबूब
इतिफाकन कहीं मिल जाए तो क्या कहते हैं
यह भी अंदाजे-सुखन है कि जफा को तेरी
गमज़ा-व-इशवा-व-अंदाज-ओ-अदा कहते हैं
जब तलक दूर है तू तेरी परसितश कर लें
हम जिसे छू न सकें उसको खुदा कहते हैं
क्या ताज्जुब है कि हम अहले-तमन्ना को ‘फराज़’
वह जो महरूम-ए-तमन्ना हैं बुरा कहते हैं
तुझे उदास किया खुद भी सोगवार हुए
तुझे उदास किया खुद भी सोगवार हुए
हम आप अपनी मोहब्बत से शर्मसार हुए
बला की रौ थी नदीमाने-आबला-पा को
पलट के देखना चाहा कि खुद गुबार हुए
गिला उसी का किया जिससे तुझपे हर्फ़ आया
वरना यूँ तो सितम हम पे बेशुमार हुए
ये इन्तकाम भी लेना था ज़िन्दगी को अभी
जो लोग दुश्मने-जाँ थे, वो गम-गुसार हुए
हजार बार किया तर्के-दोस्ती का ख्याल
मगर फ़राज़ पशेमाँ हर एक बार हुए