किसी समय बासलगढ़ राज्य में विक्रम सेन नामक राजा राज करता था। वह था तो बड़ा दयालु, लेकिन प्रत्येक कार्य को बिना विचारे ही करने का उसका स्वभाव बन गया था। उसके पास एक चिड़िया थी, जो उसे अत्यंत प्रिय थी। वह एक क्षण भी उससे अलग रहना पसंद नहीं करता था। चिड़िया भी सम्राट को बहुत चाहती थी। एक बार चिड़िया ने राजा से अपने संबंधियों से मिलने की इच्छा प्रकट की। राजा ने शीघ्र लौटने का र्निदेश देकर उसे अनुमति दे दी। चिड़िया उड़ गई और अपने संबंधियों से मिलकर बड़ी प्रसन्न हुई। लौटते समय चिड़िया के पिता ने उसे सम्राट के लिए एक अमृत फल दिया।
चिड़िया खुशी खुशी फल को लेकर उड़ चली, रास्ते में रात हो गई। अतः उसने विचार किया कि क्यों न पेड़ पर राज गुजार कर सुबह को महल पहुंचे। वह पास ही एक पेड़ पर बैठ गई। पेड़ की जड़ में एक सांप रहता था। उस रात वह भूखा थ। भोजन की तलाश में पेड़ के ऊपरी हिस्से में रेंगने लगा। उसने चिड़िया के पास रखे हुए अमृत फल को चख लिया। जिसके कारण वह फल विषैला हो गया। सुबह फल ले चिड़िया महल में पहुंची और राजा को भेंट कर दिया। राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने फल को खाने का विचार किया ही था कि, मंत्री ने राजा से कहा, ”महाराज! इसे खाने से पहले इसका परीक्षण करवा लीजिए।“ अतः एक पशु पर उसका परीक्षण कराया गया। पशु फल का टुकड़ा खाते ही मर गया। इस प्रकार वह अमृत फल ‘विष फल’ सिद्ध हो गया। सम्राट ने क्रोधित होकर चिड़िया से कहा, ”धोखेबाज चिड़िया, मुझे मारना चाहती थी… ले अब तू भी मर।“ और यह कहकर सम्राट ने चिड़िया को मौत के घाट उतार दिया और महल के बीचों बीच उसे तथा उस फल को भी गड़वा दिया। धीरे धीरे सम्राट इस घटना को भूल गया।
कुछ समय बाद उसी स्थान पर एक पेड़ निकल आया और धीर धीरे बड़ा हो गया। अब उस पर अमृत फल जैसे फल लगने लगे। इस पर मंत्री ने सम्राट को सुझाव दिया, ”महाराज! ये फल भी विषैले होंगे। अतः किसी को इनके समीप आने की मनाही करवा दीजिए।“ सम्राट ने आदेश जारी करवा दिया और पेड़ के चारों ओर ऊंची ऊंची दीवारें उठवा दीं, ताकि कोई पेड़ तक न पहुंच सके।
उसी राज्य में एक बूढ़ा और बुढ़िया रहते थे। वे कोढ़ जैसे भयंकर रोग से ग्रस्त थे और भूखों मर रहे थे। बुढ़िया ने बूढ़े से कहा, ”महल के बगीचे से वह ‘विष फल’ क्यों नहीं तोड़ लाते, ताकि उसे खाकर हमें दुनिया के कष्टों से छुटकारा मिल जाए।“ अतः बूढ़े ने बड़े प्रयत्न से वह फल प्राप्त कर लिया और दोनों ने आधा आधा खा लिया। परंतु यह क्या? उसे खाते ही वे दोनों स्वस्थ और सुंदर हो गए। यह देखकर दोनों बड़े आश्चर्यचकित हुए और सारा वृत्तांत सम्राट को कह सुनाया। सम्राट को यह समझते देर नहीं लगी कि वह फल वास्तव में अमृत फल था। अब हो भी क्या सकता था। सम्राट अपने कुकृत्य पर बड़ा दुखी हुआ और उसने भविष्य में बिना सोचे विचारे कोई कार्य न करने का दृढ़ निश्चय किया। उसने महल के पास एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और इस प्रकार चिड़िया की याद को सदा के लिए अमर कर दिया। इसलिए कहा गया है, ‘बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय।’