नई दिल्ली: जैसी उम्मीद थी कि नए आर्मी चीफ की नियुक्ति को लेकर बवाल मचेगा वैसा ही हुआ है. सरकार ने लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत को नया आर्मी चीफ नियुक्त किया है, वह 31 दिसंबर को पद संभालेंगे। विपक्ष सरकार के इस फैसले के खिलाफ खुल कर मैदान में उत्तर आया है. ऐसा लगभग ३३ साल बाद हुआ है कि आर्मी चीफ की नियुक्ति में सरकार ने वरिष्ठता को नजरअंदाज किया है, जिस पर विपक्ष ने सवाल उठाया है। कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने सरकार से इस बात का जवाब मांगा है कि वरिष्ठता को नजरअंदाज क्यों किया गया। तिवारी ने कहा, ‘लेफ्टिनेंट जनरल रावत की क्षमता पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन सरकार को इसका जवाब देना चाहिए कि आर्मी चीफ की नियुक्ति में 3 सीनियर अफसरों पर उन्हें तवज्जो क्यों दी गई।’
कांग्रेस के अलावा जेडीयू नेता केसी त्यागी ने भी नए आर्मी चीफ की नियुक्ति में वरिष्ठता का सम्मान न किए जाने पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि नियुक्तियों में पारदर्शिता जरूरी है। सीपीआई नेता डी राजा ने कहा कि सेना को किसी विवाद में घसीटना ठीक नहीं है लेकिन सरकार को बताना चाहिए क्यों वरिष्ठता को नजरअंदाज किया गया। तृणमूल कांग्रेस ने भी सरकार से इस पर सफाई मांगी है। दूसरी तरफ फौज के पूर्व अफसरों ने सरकार के कदम का यह कहकर बचाव किया है कि सेना प्रमुख की नियुक्ति को विवाद में घसीटना ठीक नहीं है। रक्षा विशेषज्ञ और सेवानिवृत्त कर्नल अनिल कौल ने नियुक्ति को सही ठहराया है।
रक्षा मंत्रालय से जुड़े सूत्रों ने बताया है कि लेफ्टिनेंट जनरल रावत की नियुक्ति बहुत सोच समझ कर की गयी है. आज देश के सामने बाहरी और आतंरिक सुरक्षा को लेकर बहुत सारी चुनौतियां हैं और लेफ्टिनेंट जनरल रावत को इस जिम्मेदारी के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार थे. खासतौर पर नॉर्थ में मिलिट्री फोर्स के पुनर्गठन, पश्चिमी फ्रंट पर लगातार जारी आतंकवाद और प्रॉक्सी वॉर और पूर्वोत्तर में जारी संघर्ष के लिहाज से उन्हें सबसे सही विकल्प माना गया।
जनरल रावत के पक्ष में सबसे खास बात यह है कि लेफ्टिनेंट जनरल रावत के पास अशांत इलाकों में लंबे समय तक काम करने का अनुभव है। बीते तीन दशकों में वह भारतीय सेना में अहम पदों पर काम कर चुके हैं। सूत्रों के मुताबिक वह कई बड़े ऑपरेशन्स की कमान संभाल चुके हैं। पाकिस्तान से लगती एलओसी, चीन से जुड़ी एलएसी और पूर्वोत्तर में वह कई अहम जिम्मेदारियां संभाल चुके हैं। उन्हें संतुलित तरीके से सैन्य संचालन, बचाव अभियान चलाने और सिविल सोसाइटी से संवाद स्थापित करने के लिए जाना जाता है।
ध्यान रहे कि इस बार रक्षा मंत्रालय की ओर से बार-बार संकेत आ रहे थे कि सिर्फ वरिष्ठता आधार न हो। बिपिन रावत ले. ज. बख्शी से जूनियर तो हैं हीं, दक्षिणी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल पीएम हैरिज से भी जूनियर हैं। लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत ने 1 सितंबर को वाइस चीफ का कार्य भार संभाला था, जिससे वह आर्मी चीफ की रेस में प्रबल दावेदार माने जा रहे थे। ऊंचाई वाले इलाकों में अभियान चलाने और उग्रवाद से निपटने का उन्हें खासा अनुभव है। उनकी नियुक्ति चीन से लगे लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल और कश्मीर में रह चुकी है।
ऐसा नहीं है सेना के प्रमुख पद की नियुक्ति में पहली बार वरिष्ठता को नजरअंदाज किया गया हो. 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा पर ले. जनरल ए. एस वैद्य को तवज्जो देते हुए सेना प्रमुख की जिम्मेदारी सौंप दी थी। इससे नाराज होकर सिन्हा ने इस्तीफा सौंप दिया था। इससे पहले 1972 में इंदिरा गांधी सरकार ने खासे लोकप्रिय रहे लेफ्टिनेंट जनरल पीएस भगत को नजरअंदाज कर दिया था।
नए सेना प्रमुख की नियुक्ति को लेकर कांग्रेस के हमले की निंदा करते हुए बीजेपी ने रविवार को कहा कि डिफेंस फोर्सेज के मामले में किसी तरह की राजनीति नहीं होनी चाहिए। सरकार ने कहा कि लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत को मौजूदा सुरक्षा परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए यह अहम जिम्मेदारी सौंपी गई है। पार्टी ने कहा कि नए आर्मी चीफ को पांच सीनियर अधिकारियों के पूल में से चुना गया है, जिनमें से सभी सक्षम थे। रावत की नियुक्ति को दूसरे अधिकारियों के खिलाफ निगेटिव राय के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।
विपक्षी पार्टी पर हमला बोलते हुए बीजेपी ने कहा कि कांग्रेस नए आर्मी चीफ की नियुक्ति का राजनीतिकरण करने में जुटी है क्योंकि वह लगातार राजनीतिक हारों से परेशान है। वरिष्ठता क्रम को नजरअंदाज कर रावत को चुने जाने पर घिरी बीजेपी के नैशनल सेक्रटरी श्रीकांत शर्मा ने कहा, ‘वह सभी सक्षम अधिकारी थे, लेकिन मौजूदा सुरक्षा परिदृश्य के मद्देनजर सरकार ने रावत को सबसे उपयुक्त उम्मीदवार के तौर पर चुना। हम सभी राजनीतिक दलों से आग्रह करते हैं कि वे इस नियुक्ति का राजनीतिकरण न करें।’