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वन वृक्षों से हमें क्या सीख मिलती है, जानिए चाणक्य की नीतियां

अनवस्थितकायस्य न जने न वने सुखम्। जनो दहति संसर्गाद् वनं सगविवर्जनात॥
जिसका चित्त स्थिर नहीं होता, उस व्यक्ति को न तो लोगों के बीच में सुख मिलता है और न वन में ही । लोगो के बीच में रहने पर उनका साथ जलता है तथा वन में अकेलापन जलाता है ।

माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी। अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥
जिसके घर में न माता हो और स्त्री क्लेश करने वाली हो , उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं ।

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शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे। साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥
न प्रत्येक पर्वत पर मणि-माणिक्य ही प्राप्त होते हैं न प्रत्येक हाथी के मस्तक से मुक्ता-मणि प्राप्त होती है । संसार में मनुष्यों की कमी न होने पर भी साधु पुरुष नहीं मिलते । इसी प्रकार सभी वनों में चन्दन के वृक्ष उपलब्ध नही होते ।

एकेनापि सुवर्ण पुष्पितेन सुगन्धिता। वसितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा॥
जिस प्रकार वन में सुन्दर खिले हुए फूलोंवाला एक ही वृक्ष अपनी सुगन्ध से सारे वन को सुगन्धित कर देते है उसी प्रकार एक ही सुपुत्र सारे कुल का नाम ऊंचा कर देता है |

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एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना। दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा॥
जिस प्रकार एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने पर सारा वन जल जाता है इसी प्रकार एक ही कुपुत्र सारे कुल को बदनाम कर देता है |

नात्यन्तं सरलेन भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्। छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः॥
अधिक सीधा नहीं होना चाहिए । जंगल में जाकर देखने से पता लगता है कि सीधे वृक्ष काट लिया जाते हैं, जबकि टेढ़ा-मेढ़ा पेड़ छोड़ दिए जाते हैं ।

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क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी। विद्या कामदुधा धेनुः संतोषो नन्दनं वनम्॥
क्रोध यमराज है, तृष्णा वैतरणी नदी है, विद्या कामधेनु है और सन्तोष नन्दन वन है ।

वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयः पत्रफलाम्बु सेवनम्। तृणेशु शय्या शतजीर्णवल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम्॥
बाघ, हाथी और सिंह जैसे भयंकर जीवों से घिर हुए वन में रह ले, वृक्ष पर घर बनाकर, फल – पत्ते खाकर और पानी पीकर निर्वाह कर ले, धरती पर घास – फूस बिछाकर सो ले और फटे – पुराने टुकड़े – टुकड़े हुए वृक्षों की छल को ओढ़कर शरीर को ढक ले, परन्तु धनहीन होने की दशा में अपने संबन्धियों के साथ कभी न रहे, क्योंकि इससे उसे अपमान और उपेक्षा का जो कड़वा घूंट पीना पड़ता है, वह सर्वथा असह्य होता है ।

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