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क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तगू करे – अहमद फ़राज़ शायरी

क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तगू करे

क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तगू करे
जो मुस्तक़िल सुकूत से दिल को लहू करे

अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम का दुख नहीं
पर दिल ये चाहता है के आगाज़ तू करे

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तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िन्दगी
खुद को गँवा के कौन तेरी जुस्तजू करे

अब तो ये आरज़ू है कि वो जख़्म खाइये
ता-ज़िन्दगी ये दिल न कोई आरज़ू करे

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तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र
अब कोई हादिसा ही तेरे रु-ब-रू करे

चुपचाप अपनी आग में जलते रहो “फ़राज़”
दुनिया तो अर्ज़े–हाल से बे-आबरू करे

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(मुस्तक़िल=अटल, सुकूत=मौन, तर्क-ए-मरासिम=
मेल-जोल छोड़ना, आगाज़=प्रारम्भ, ग़नीमत=
उत्तम, ता-ज़िन्दगी=जीवन भर, रु-ब-रू=समक्ष,
अर्ज़े–हाल=हालत सुनाने)

हरेक बात न क्यों ज़ह्र-सी हमारी लगे

हर एक बात न क्यूँ ज़ह्र-सी हमारी लगे
कि हमको दस्ते-ज़माना से ज़ख़्म कारी लगे

उदासियाँ हों मुसलसल तो दिल नहीं रोता
कभी-कभी हो तो ये क़ैफ़ियत भी प्यारी लगे

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बज़ाहिर एक ही शब है फ़िराक़े-यार मगर
कोई गुज़ारने बैठे तो उम्र सारी लगे

इलाज इस दर्दे-दिल-आश्ना का क्या कीजे
कि तीर बन के जिसे हर्फ़े- ग़मगुसारी लगे

हमारे पास भी बैठो बस इतना चाहते हैं
हमारे साथ तबीयत अगर तुम्हारी लगे

‘फ़राज़’ तेरे जुनूँ का ख़याल है वर्ना
ये क्या ज़रूर कि वो सूरत सभी को प्यारी लगे

(दस्त=हाथ, कारी=गहरे, मुसलसल=लगातार,
क़ैफ़ियत=दशा, बज़ाहिर=प्रत्यक्षत:, शब=रात्रि,
फ़िराक़=जुदाई, दर्दे-दिल-आश्ना=दर्द को जानने
वाले दिल का, हर्फ़े- ग़मगुसारी=सहानुभूति के
शब्द, जुनूँ=उन्माद)

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