यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी

अहमद फ़राज़ शायरी

कितने ग़म थे कि ज़माने से छुपा रक्खे थे इस तरह से कि हमें याद न आए खुद भी

अहमद फ़राज़ शायरी

ऐसा ज़ालिम कि अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म हमसे रह जाए तो वो याद दिलाए ख़ुद भी

अहमद फ़राज़ शायरी

लुत्फ़ तो जब है तअल्लुक़ में कि वो शहरे-जमाल कभी खींचे कभी खिंचता चला आए ख़ुद भी

अहमद फ़राज़ शायरी

ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिए रंगे-महफ़िल सबको मदहोश करे होश से जाए ख़ुद भी

अहमद फ़राज़ शायरी

यार से हमको तगाफ़ुल का गिला है बेजा बारहा महफ़िले-जानाँ से उठ आए ख़ुद भी

अहमद फ़राज़ शायरी

तेरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जलवागरी रही कि जो रौशनी तेरे जिस्म की थी मेरे बदन में भरी रही

अहमद फ़राज़ शायरी