नई दिल्ली.देश के जाने-माने अधिवक्ता राम जेठमलानी ने शनिवार को सात दशक लंबे वकालत के करियर से संन्यास लेने की घोषणा की. साथ 94 वर्षीय जेठमलानी ने ये भी कहा कि वह भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ अपनी जंग जारी रखेंगे. इस मौक़े के गवाह बने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई वरिष्ठ न्यायाधीशों, विभिन्न राज्यों के महाधिवक्ताओं,विधि अधिकारियों तथा विधि छात्र. कार्यक्रम न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के सम्मान में भारतीय विधि परिषद (बीसीआई) की ओर से आयोजित किया गया था.
इस यादगार मौक़े पर राम जेठमलानी ने कहा, ‘मैंने वकालत पेशे में अपने जीवन के 76 साल और अध्यापन के क्षेत्र में 77 साल बिताए हैं और अब वक्त आ गया है कि मैं सक्रिय वकालत से संन्यास ले लूं. अब आप मुझे अदालतों में किसी मामले की पैरवी करते नहीं पायेंगे. कुछ और अच्छे काम अधूरे हैं, जिनकी ओर अब मैं अपना ध्यान लगाऊंगा. जेठमलानी ने कहा कि पांच दिन बाद वह 95 वर्ष के हो जायेंगे और अब कुछ समय अन्य कामों में लगाना है। उन्होंने पूर्ववर्ती और मौजूदा सरकारों पर निशाना साधते हुए कहा कि इन सरकारों ने देश को गर्त में पहुंचाया है और इस ओर सोचने का वक्त है. हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि वह नया क्या करने जा रहे हैं.
95 साल के राम जेठमलानी देश के कानूनी गलियारों में तो जाना-पहचाना नाम हैं होने के साथ-साथ लोगों के बीच अपने विवादास्पद बयानों के कारण भी चर्चा में बने रहते हैं. राम जेठमलानी ने 17 साल की उम्र में वकालत की डिग्री ले ली थी. जेठमलानी का पहला केस 1959 में प्रसिद्ध के.एम. नानावती बनाम महाराष्ट्र सरकार का मामला था. इसमें इन्होंने यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ के साथ केस लड़ा था. चंद्रचूड़ बाद में भारत के चीफ जस्टिस भी बने. इस केस के बाद जेठमलानी सुर्खियों में आ गए थे. नानावती केस पर ही बाद में अभिनेता अक्षय कुमार अभिनीत रूस्तम फिल्म भी बनी.
इसके बाद 60 के दशक में जेठमलानी ने कई स्मगलरों का केस लड़ा जिसकी वजह से उन्हें ‘स्मलगरों का वकील’ कहा जाने लगा. एक तरफ जेठमलानी अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते हैं तो वहीं भाजपा में रहते हुए पार्टी के कामकाज और पार्टी के शीर्ष नेताओं का खुलकर विरोध करने के लिए भी प्रसिद्ध थे. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1999 में जेठमलानी को अपनी सरकार में कानून मंत्री का पद दिया था. लेकिन तात्कालीन चीफ जस्टिस आदर्श सेन आनंद और अटॉर्नी जनसल सोली सोराबजी से मतभेद के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.